Wednesday, August 25, 2010

लगता है हम कुछ अपना भुलाय बेठै है

"ईश्वर की पनाह मे आँगन बिछोय बेठै है
कभी थन्डी थन्डी हवा से मुलाकात हो जाती है
तो कभी चिड्याँओ से भी बात हो जाती है
कभी आसमान के आँसुऔ से शरीर मचललेते है
तो कभी सुरज के साथ माहौल बना लेते है
फ़िर ऐसे मे दिन भर, दिनभर से हि तकरार होती है
य़ा फ़िर खुद से या ऊपर वाले से यहि गुहार होती है
इस पनाह को तु अपना बनाना कही
इस आँगन को तु सपना बनाना सही
फ़िर चाँदनी रात मे शबाब आता है
और ऊपर से यह जवाब आता है
ईश्वर कि पनाह मे आँगन बिछोय बेठै हो
कही मन्दिर कही गिर्जा तो कही मस्जिद बनाये बेठै हो
य़ु तो तुम हो इन्सांन पर इन्सानीयत भुलाय बेठै हो
लगता है हम कुछ अपना भुलाय बेठै है
ईश्वर के पनाह मे आँगन बिछोय बेठै है
ईश्वर के पनाह मे आँगन बिछोय बेठै है"
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दोस्ती

"दोस्ती देखी है हम ने
चांदनी की चांद से,
अन्धेरे की रात से,
पंछी की आकाश से,
पर खो जाती है चांदनी सवेरे की घात से
अन्धेरा भी चला जाता है दूर पलभर मे रात से
पंछी भी हो जाते है दूर धीरे-धीरे आकाश से
पर दोस्त मिले मुझे बेहद बे-नज़ीर
चाहे दिन हो या रात
चाहे दुर हो या पास
पर रहती है खुमारी उनकी मेरे हरपल साथ
जिन्दा है मेरी ज़िन्दगी, मेरे दोस्तो के साथ"
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"गुलज़ार" सर के लिये


"अब सोचना नही पडता मुझे कुछ लिखने को
आपका दीदार करता हूँ, कलम खुद-ब-खुद चल पडती है
बेश्क मेरा इमान गरीब है इस खेल मे
मगर मजबूर है कलम भी इस दीदार के आगे
नतीज़ा सामने है, इन्कार नही कर सकते
नही सोचा था मेरे सफ़र मे "गुलज़ार" भी होगे"

"अब देखा नही जाता
इस देख्नने को..
निगाहें-करम भी झुक जाते है
ये अफ़सून हे खुदा का
खुदा का फ़रीश्ता है ये अफ़साना"
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नज़र

"उन आंखो कि दरिन्दगी तो देखो
नजरे मिलती नही कि
नींद चुरा लेंती है
नींद अपना खुतबा भुल जाती है लेकीन
फ़िर भी सपनो मै ख्वाब गुफ़्त्गु किया करते है"
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समय

"मुझे परिश्थितियों ने परखा है, मुझे गलत मत समझना,
मुझे समय ने जकडा है , मुझे गलत मत समझना,
मैं आदमी वही हूँ, बस समय ही  बदला है,
दिन फ़िर एक आयेगा, जब समय ही दिखलायेगा,
मैन आदमी वही हूँ, बस समय ही बद्ला है,
मुझेय गलत मत समझना, मुझे समय ने जकडा है"
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