Sunday, May 25, 2014

नज़्म बेरुखी सी

नज़्म बेरुखी सी कहने लगा हूँ
दर्द अधिकतर अब सहने लगा हूँ
हम खुद को खुश क्या दिखाने लगे
करीबी बोले अब में जीने लगा हूँ
वक़्त क्यों नहीं लौटता वो पहले वाला
अब चरागों को छुपा कर में रहने लगा हूँ
अब ज़ेहन में छुपा लेती है खुद ज़िन्दगी
मैं खुद को पराया भी कहने लगा हूँ

नज़्म बेरुखी सी कहने लगा हूँ

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