Monday, September 12, 2016

बारिश की बूँद-खिड़की और माँ

बाहर से अंदर की और छलकती हुई
बेसब्री से, मुझे तकती हुई
इन्टरनेट के काले वायर पर
हवा की धुन पर थिरकती बूँद
बड़ी मासूम दिखती है

खिड़की खोलते ही कुछ बूंदे तो
हवा के साथ मेरी गोद में आ गिरी
मुझे याद है,
जब स्कूल से लौटने के बाद
मैं भी थक हुआ माँ की गोद में
इसी तरह गिर जाया करता था

वक़्त का लौटना नामुमक़िन है
लेकिन
ये हवा, बारिश, बूंदे काफी है
मुझे उन यादों के शहर में छोड़ने के लिए

मुझे यकीन नहीं होता
सिर्फ मेरे कमरे की खिड़की खोल देने से
मैं माँ की गोद में सर रखकर
सोने का एहसास पा लूंगा

इतना ही नहीं,
सामने वाले फ्लैट की खुली खिड़की
मेरे कमरे की खिड़की से गुफ़्तगू कर रही है
बिलकुल जैसे माँ बालकॉनी में कड़ी होकर
पड़ोस वाली आंटी से बात करती है

कुछ अधूरा है तो सिर्फ
वो चाय, परांठे या पकोड़े
वो भी माँ के हाथ के

मेरे कमरे की खिड़की का नज़ारा मुझे
माँ से मिलवा लाया

मेरी कमरे खिड़की से एक नज़ारा 

© Copyright rajnishsongara

Friday, September 9, 2016

माँ

इक रोज़ देखा था सैलाब उसकी आँखों में
माँ की आँखों से गिरा एक आँसू ही काफी था |

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बुलंदी तक पहुँचाने का दम था उसकी दुआओ में,
जो चेहरे से बहुत गरीब नज़र आती है |

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ये भी क्या सलीखा है 'मुनव्वर', हर कोई भूल जाता है,
बस माँ ही है, जो कभी नहीं पूछती 'बेटे कितना कमाता है |

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मैंने कुछ कमाया तो नहीं 'मुनव्वर',
लेकिन दौलत का खजाना है मेरे पास,
जब भी मैं माँ से बात करता हूँ
वो बहुत खुश नज़र आती है |

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सिर्फ ये बात देखकर मुझे
हैरानी बहुत होती है
मैं जब तक खाना ना खालुँ
माँ नहीं सोती है |

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पल भर में मुझे
मेरी मिट्टी से जोड़ देती है
ये नज़्म मुझे, मेरे घर के
आँगन तक छोड़ देती है

मैं थोड़ा भी उडु ज़मीन से
तो मुझे उड़ने नहीं देती
बहुत रखती है बात दिल में
माँ कभी किसी से नहीं कहती |

© Copyright  rajnishsongara

कुछ नज़्म बेटियों पर

बांधो राख़ी तो इस बार, ये बात ज़रूर कह देना
इज़्ज़त लड़कियों की ना लुटे, भाईयो को सौगंध दे देना |

ख़ुश तो रहता है मगर
उसके आँसू नहीं रूकते
बाप अपनी बेटी विदा नहीं
अपनी उम्र पराई करता है

ना जाने क्यो,
अ‍ब तितलियाँ नही ठहरती मेरे घर के आँगन में
सब कुछ बदल जाता है बेटियों का आँगन बदलने से |


सिंधु जब साक्षी होगी कल के अख़बारों में,
बेटियाँ फिर नहीं जलेगी दहेज़ के बाज़ारों में |



© Copyright  rajnishsongara

(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

बदमाश गलियों में

बदमाश गलियों में
आवारा घूमती ज़िन्दगी
कभी सुबह तो कभी शाम
कुछ कुछ ढूढ़ती रहती है
बहुत वक़्त हो गया
शाम में घर को लौटे
लेकिन मज़ेदार बहुत है
कुछ ना कुछ मिल जाता है
हर रोज़ राह में चलते चलते
खुद को ज़िंदा रखने के लिए
बदमाश गलियों में
आवारा घूमती ज़िन्दगी

© Copyright  rajnishsongara