हर आँख रो रही है
सिसक सिसक कर कह रही है
इस बार मलहम न लगाना
इस बार हमे न दबाना
अब तलक सह ली है
दर्द की तपस्या
इस बार है इस घाव को
और गहरा कर दिखाना
इस बार दर्द की आवाज
मेरे घाव में गहराई तक जायेगी
इस बार ये चोट
बहुत नंगी भुकी सहमी सी फड फडायेगी
ज़िंदगी देदो
ज़िंदगी देदो
ज़िंदगी देदो
इस बार ये मलहम मेरे हिम्मत बना दो
इस बार ये दर्द मेरा स्वाभिमान बना दो
इस बार ये घाव मेरे ज़िंदगी बना दो
इस बार इस जिस्म की इज्ज़त बचा दो
मैं जीना चाहती हुं
मैं जीना चाहती हुं
कुछ लम्हे
कुछ पल
कुछ वक़्त
कुछ साँसे
कुछ प्यार
मैं जीना चाहती हुं
मैं जीना चाहती हुं
© Copyright rajnishsongara
Just as you enumerated, life is not life as long as it is bound by any kind of restriction.
ReplyDeleteI personally think that attaching a sense of purity or pride (izzat) to someone's body is a problem. This makes for a big motivation for the culprits to indulge in such acts, just to show someone their 'place'.
Secondly, it is us, the males, or 'bhailog', who are at fault because of our mentality. You will find it surprising but some of my friends and co-workers still think that it is upto the women to stay 'within-their-limits' or face the consequences.
Mujhe tumse puri hamdardi hai...... It appears everyone of us is somewhere very deeply hurt e and now we want a change in men's outlook so much that women would have never thought of so much respect and idle behavior from men.
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