ये वही प्यास है जो मुझे लग रही थी,
वरना पानी तो मैं भी पीता हूँ |
इस दरिया मे डूब रहा हूँ,
बस तैरना चाहता हूँ निकलना नही |
मंजील नही है पास वरना शिकारे तो बहुत चलते है,
अकेले ही जाना है मन्ज़ील के करीब |
Wednesday, March 6, 2013
वक्त कि फ़ितरत
वक्त का हुनर तो देखीये
खुद तो बदलता ही है
इन्सानियत मे मुक्क्मल होकर
इन्सान को भी बदल देता है
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